Sunday 8 October 2017

आखिर क्यों मार्क्सवादियों को अवश्य ही अम्बेडकर और अम्बेडकरवाद का विरोध करना चाहिए?

-राजेश त्यागी/ १६.४. २०१५  
हिंदी अनुवाद: रजिंदर, कल्पेश डोबरिया 


मायावती से पासवान तक, और ढसाल से जीतन राम तक, सभी अंबेडकरवादियों का पूंजीवाद और उसकी राजनैतिक सत्ता के आज्ञाकारी दलालों के तौर पर पर्दाफाश हो गया है। उनकी विश्वासघाती भूमिका, गरीबों और वंचितों के लिए उनकी झूठी लफ्फाजी के बावजूद, गरीबों और निम्न जातियों की जनता के तबकों को अमीरों और अभिजातों की सत्ता के पीछे बांधने में ही निहित है। 

यहां हम उन प्रमुख मुद्दों को रेखांकित कर रहे हैं, जो हम क्रान्तिकारी मार्क्सवादियों और अम्बेडकरवादियों के बीच विवाद के सार को इंगित करेंगे-



१. अंबेडकरवादियों की हमारी पहली और सबसे महत्वपूर्ण आलोचना, राष्ट्रवाद की ओर उन्मुख उनके दृष्टिकोण और उस पर टिके इस गलत परिप्रेक्ष्य के विरोध पर आधारित है कि जातिगत भेदभाव के विरुद्ध भारत की राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर लड़ा जा सकता है और चुनौती दी जा सकती है। भारत में जातिगत अन्याय और उत्पीड़न का सवाल, समस्त दक्षिण एशिया में व्याप्त प्रचंड समाजिक असमानता के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, और यह न सिर्फ दक्षिण अफ्रीका से अमेरिका तक कालों के रंगभेद विरोधी संघर्ष के साथ अनिवार्य रूप से गुंथा है, बल्कि यूरोप, अमेरिका और दुनिया भर में सभी जगह, पूंजीवादी हमलों के विरूद्ध और समाजवाद के लिए मज़दूरों के संघर्ष के साथ दृढ़ता से जुड़ा है। क्रांतिकारी मार्क्सवादियों के लिए, भारत में जाति उत्पीड़न का प्रश्न राष्ट्रीय नहीं अंतर्राष्ट्रीय चरित्र का है और उसे दुनिया भर में मज़दूरों और मेहनतकशों के संघर्षों से परे किसी खोल में बंद करके नहीं देखा जा सकता। भारत और दक्षिण एशिया में जातिगत भेदभाव के खिलाफ़ संघर्ष, दुनिया भर में पूंजीपतियों और जमींदारों के खिलाफ़ मज़दूरों और मेहनतकशों के संघर्ष की सफलता और असफलताओं के साथ अकाट्य रूप से जुड़ा हुआ है और उन पर सीधे तौर पर निर्भर करता है।

२. अंबेडकरवादियों के साथ हमारे विग्रह का दूसरा बड़ा मुद्दा, बुर्जुआ जनवाद की ओर उनकी उन्मुखता और भारत समेत दुनिया भर में पिछड़े देशों में पूंजीवाद की भूमिका और सामर्थ्य के बारे में गलत धारणाओं और भ्रमों को सम्मिलित करता है। स्तालिनवादियों की तरह ही, अंबेडकरवादी भी दक्षिण एशिया और भारत में पूंजीवाद को, उसके विकास को, क्रन्तिकारी भूमिका में देखते और प्रचारित करते हैं। उनके अनुसार, पूंजीवाद का विकास, जातिगत विषमता और उत्पीड़न का, अगर पूर्णत: नहीं तो, कम से कम एक सीमित दायरे में, अवश्य सर्वनाश करेगा।

३. अंबेडकरवादी इस झूठी अवधारणा से संतुष्ट हो लेते हैं कि पूंजीवाद का विकास और इसके तहत जनवाद की प्रौढ़ता, जातिगत उत्पीड़न के उन्मूलन में परिणत होगी। यह झूठी अवधारणा डेढ़ सदी के पूंजीवादी विकास के इस महत्वपूर्ण निष्कर्ष को अनदेखा करती है कि जाति प्रश्न सहित किसी भी जनवादी प्रश्न को सुलझाने की पूंजीवादी सत्ता की अक्षमता को, इतिहास ने, बिना किसी संदेह के, साबित कर दिया है। इसका उन्मूलन समाजवाद के तहत यानि मज़दूर वर्ग की राजनीतिक सत्ता के तहत ही किया जा सकता है।

४. अम्बेडकरवादी, न सिर्फ पूंजीवाद और इसकी सत्ता के प्रबल समर्थक हैं, बल्कि वे मज़दूरों और मेहनतकशों की सांझी सत्ता पर आधारित, सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के विचार को, मार्क्सवादियों के 'दलित-विरोधी' प्रस्ताव के तौर पर ठुकराते हैं, जबकि साथ ही साथ बूर्ज्वा जनवाद में, जो कि अपने अंतर्य में पूंजीपतियों और जमींदारों की छद्म तानाशाही के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, भ्रमों को कय्याम रखते हैं और उन्हें बिना शर्त समर्थन प्रदान करते हैं।

५. अंबेडकरवादी, बूर्ज्वा सुधारवादी हैं, जो जातिगत भेदभाव के खिलाफ़ लड़ने के नाम पर, पूंजीपतियों के शासन के भीतर और उसके मातहत, उनकी राज्यसत्ता पर आधारित, ऊपर से और सख्ती से लागू होने वाले कानूनी और संवैधानिक रास्ते तलाशते हैं और उनकी वकालत करते हुए इस सत्ता के सुदृढ़ीकरण की मांग करते हैं। वे उन कतिपय और सभी तरह के, क्रान्तिकारी रास्तों, मुठभेड़ों और विद्रोहों का विरोध करते हैं जो शोषितों, वंचितों की सीधी कार्रवाई पर आधारित हों और जो पूंजीपतियों और जमींदारों की सत्ता के आस्तित्व के लिए खतरा बन सकते हों या उसे चुनौती देते हों। अम्बेडकरी, बूर्ज्वा व्यवस्था का समर्थन करते हैं और जुलूस प्रदर्शन या किसी और जन-कार्रवाई के जरिए, इसको नुक्सान पहुंचाने या अस्थिर करने के किसी भी कारगर प्रयास का खुला विरोध करते हैं।

६. अंबेडकरवादी, दबे-कुचले सर्वहारा के बीच, भ्रम पैदा करते हैं कि जातिगत उत्पीड़न के सवाल को पूंजीवादी जनवाद के भीतर उठाया जा सकता है और हल किया जा सकता है। वह समानता और समाजवाद के लिए जुबानी जमाखर्च करते हैं, परन्तु यह कहकर कि सबसे पहले जाति का सवाल ही सुलझाया जाएगा, वे इसे अनंत काल के लिए टाल देते हैं। मार्क्सवादियों को यकीन हैं कि जाति का सवाल पूंजीवादी शासन के भीतर नहीं सुलझाया जा सकता। इसे सुलझाने के लिए, पूंजीवादी सत्ता को उखाड़ फेकना और सर्वहारा अधिनायकत्व की स्थापना, अनिवार्य है। सिर्फ, पूंजीपतियों और जमींदारों पर सर्वहारा की राजनैतिक विजय ही, उन सामाजिक परिस्थितियों को स्थापित करेगी, जो जाति उत्पीड़न समेत, सभी उत्पीड़नों का निर्य़ाणक तौर पर सफाया करने वाली सामाजिक क्रांति की शुरुआत के लिए जमीन तैयार करेंगी।

७. ऐतिहासिक अन्याय और सामाजिक विषमता, जो सदियों से निचली जातियों के मेहनतकशों पर लदी हुई है और जिसने उन्हें मानवता की सभी उपलब्धियों से अद्यतन वंचित रखा है, का सर्वनाश करने के लिए अम्बेडकरवादी नौकरियों में 'आरक्षण' को रामबाण के तौर पर प्रस्तावित करते हैं। मार्क्सवादी, आरक्षण को बूर्जुआ सुधारवाद की राह मानते हुए, आगाह करते हैं कि आरक्षण जाति उत्पीड़न से मुक्ति का रास्ता कतई नहीं है। प्रथम तो यह कि 'आरक्षण' का सारा लाभ, निचली जातियों के संपन्न संस्तरों द्वारा निगल लिया जाता है और दूसरा यह कि पूंजीवादी बाज़ार और उसकी सत्ता के साथ एकाकार हो चुके, उसमें समाविष्ट हो चुके, ये ऊपरी संस्तर, दलित जातियों में व्यापक निचले हिस्सों की बेहतरी या उनके जीवन स्तर को उचा उठाने में कोई भूमिका अदा नहीं करते।

८. अम्बेडकरवादी, करोड़ों-करोड़ दलित मेहनतकश जनता, उत्पीड़ितो और अछूतों की मुक्ति के एकमात्र कारगर रास्ते, मार्क्सवाद, के अव्वल दर्जे के शत्रु हैं और नख से शिख तक उसका विरोध करते हैं। उनके नेता, बार-बार अपने भाषण, मार्क्सवादियों को ‘निचली जातियों को राजनीतिक और सामाजिक क्रांति के लिए उद्वेलित करने’ के घोर पाप के लिए कोसने और आरोपित करने से शुरू करते हैं।

९. अम्बेडकरवादी अभिन्न रूप से गांव-शहर में बड़े कारोबारियों, निवेशकों और संपत्ति-स्वामियों के संपन्न संस्तरों के साथ बंधे हैं और उनका प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी खुद की पार्टियों पर कुलीन नेताओं का प्रभुत्व होता है जो बड़े निवेशकों, व्यापारियों, अफसरशाहों, सरकारी बाबुओं और संपतिशालियों से करीबी रखते हैं।

१०. अम्बेडकरवादी, दूसरी पूंजीवादी पार्टियों और बूर्जुआ नेताओं के साथ करीबी के साथ खड़े होते हैं और पूंजीवादी जनवाद की राजनीतिक सत्ता को स्थिरता देने के लिए वाम से दक्षिण तक, उन सभी के साथ तत्परता से बूर्जुआ गठबंधनों में शामिल होते हैं।

११. अम्बेडकरवादी जाति और वर्ण पर अधारित अस्मिता की राजनीति के समर्थक हैं और इसे इतिहास को आगे ले जाने वाले अंतरविरोध के तौर पर प्रचारित करते हैं। जबकि, सच यह है कि तमाम जातिगत संरचनाएं पहले ही पूंजीवाद के अधीन हो चुकी हैं, और इसकी सुविधा, जरूरत और मांग के अनुसार ही परिवर्तित और सुरक्षित की गयी हैं। पूंजीवाद ने खुद को समाज की पुरानी संरचना से अनुकूलित कर लिया है और फलस्वरूप श्रम की इसकी प्राचीन प्रविधियों और जाति आधारित श्रम विभाजन को नष्ट करने की जगह उससे संलयन कर लिया है। पुरानी संरचना को उखाड़ फेंकने की बजाय, पूंजीवाद ने उनके बीच गलियारे तलाश लिए हैं।

१२. अम्बेडकरवादी यह मानने से इनकार करते हैं कि दक्षिण एशिया में जाति-व्यवस्था, श्रम के कालग्रस्त विभाजन, जिस पर एशियाई उत्पादन प्रणाली आधारित थी, से उद्भूत हुई है। विदेशी पूंजीवाद की आमद से बहुत पहले भारतीय समाज इसी एशियाई तानाशाही के जुए में था। विदेशी पूंजीवाद के आगम और सत्ता दखल पर भी उसने उत्पादन की पुरानी पद्धति और श्रम का विभाजन ज्यों का त्यों बनाए रखा।

१३. अम्बेडकरवादी यह समझने में असफल रहते हैं कि जाति का अस्तित्व, पूंजीपतियों समेत सभी शोषक वर्गों को, हाथों से किया जाने वाले और हेय-दृष्टि से देखे जाने वाले, श्रम को, सस्ते में मुहैया कराने में सहायक सिद्ध होता है। गांव, जाति आधारित श्रम विभाजन और भूमि के मालिकाना हक में जातीय विषमता, अन्याय और विरोध का, बहुत तीखा फलक प्रदर्शित करता है। बड़े भूमिपति निरपवाद रूप से उंची जातियों से सबंध रखते हैं, खेती करने वाले माध्यम जातियों से, जबकि कृषि मज़दूर अनिवार्य रूप से दलित, आदिवासी हैं।

१४. अम्बेडकरवादी इस तथ्य से आखें मूंद लेते हैं कि वर्गीय-शोषण से मुखातिब हुए बिना, जाति उत्पीड़न के सवाल को हल करना तो दूर, गंभीरतापूर्वक उठाया तक नहीं जा सकता, क्योंकि पूंजीवाद की पैठ से, ये दोनों, अभिन्न रूप से एक-दूसरे में घुलमिल चुके हैं, अंतर्गुन्थित हो चुके हैं।

१५. इस तरह, जाति उत्पीड़न और अन्याय को नष्ट करने के लिए सामाजिक क्रांति के आगाज़ की सबसे पहली और महत्वपूर्ण मांग है कि सर्वहारा, पूंजीपतियों और ज़मींदारों के हाथ से, राजनीतिक सत्ता और शक्ति छीन ले।

१६. मार्क्सवादियों को जाति उत्पीड़न की सभी अभिव्यक्तियों के विरूद्ध सबसे अगली कतारों में लड़ना तो चाहिए ही, मगर साथ ही यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि जाति उत्पीड़न, सामाजिक अन्याय और अस्पृश्ता जैसी मानवीय अधोगति का उन्मूलन, करोड़ों मेहनतकशों द्वारा समर्थित, मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में क्रांति के बगैर असंभव है।

१७. अम्बेडकरवादी इस बात से इनकार करते हैं कि जाति उत्पीड़न के विनाश की लड़ाई, कृषि-क्रांति का ही हिस्सा है, क्योंकि निम्न जातियों के सबसे गरीब और वंचित गांवों में ही रहते हैं और इस पर निर्भर हैं। गांव में जमींदारों की सत्ता को नष्ट किये बिना, जाति अन्याय का उन्मूलन नहीं किया जा सकता। यह सत्ता सिर्फ भूमि के बलात राष्ट्रीयकरण से ही नष्ट की जा सकती है, जो सिर्फ़ सर्वहारा अधिनायकत्व के तहत ही संभव है।

१८. अम्बेडकरवादी यह समझने में विफल हैं कि पूंजीवाद और उसका जनवाद अपनी आर्थिक और राजनीतिक शक्ति, इतिहास में बहुत पहले ही खो चुका है। हम साम्रज्यवाद के तहत इसके पतन के सबसे उन्नत दौर में जी रहे हैं। पूंजीवाद बहुत पहले ही बांझ हो चुका है और जाति के सर्वनाश जैसे जनवादी प्रश्नों पर कोई सकारात्मक भूमिका अदा नहीं कर सकता।

१९. अम्बेडकरवादियों की उम्मीदों और विश्वासों के उलट, औपनिवेशिक पूंजीवाद के आगम और साम्रज्यवाद के प्रति भारत की अधीनस्थता ने, जाति-उत्पीड़न का विनाश नहीं किया, बल्कि पुराने के साथ-साथ उत्पीड़न के नये रूपों को जोड़कर और उत्पन्न करके, उत्पीड़न को उसके चरम पर पहुंचा दिया है।

२०. अम्बेडकरवादी, सर्वहारा की बहु-जातीय और बहु-राष्ट्रीय एकता के लिए संघर्ष को खुली चुनौती देते हैं और जमींदारों-पूंजीपतियों की सत्ता के विरूद्ध क्रांति के लिए सर्वहारा को अक्षम बताते हैं। वह तमाम जातियों के सर्वहारा के बीच अंतर-वर्गीय एकजुटता हासिल करने की जगह, वंचित, दलित जातियों की मजदूर व मेहनतकश जनता को उन जातियों के सम्पन्न और धनी संस्तरों के पीछे बांधते हैं। सर्वहारा और गरीबों की वर्गीय एकता को छिन्न-भिन्न करते हुए, और इस तरह उनके किसी भी प्रभावी संघर्ष को असंभव बनाते हुए, अम्बेडकरवादी, सत्ता पर काबिज़ धनिकों के वर्ग-हितों की सुरक्षा के लिए काम करते हैं। अम्बेडकरवादी, सर्वहारा अंतराष्ट्रीयतावाद और स्थायी क्रांति, जिस पर अक्टूबर क्रांति आधारित है, के पक्के शत्रु हैं।

२१. मार्क्सवादी सभी मज़दूरों को उनके वर्गीय दुश्मनों के खिलाफ़ सयुक्त संघर्ष में जाति की सीमा-रेखाओं से विरत और उनके आरपार एकजुट करते हैं। इस एकजुटता के लिए संघर्ष का अर्थ है- मज़दूर आन्दोलन के भीतर एक विचारधारात्मक संघर्ष, जो न सिर्फ जातीय-दुराग्रह और जाति-आधारित भेदभाव के विरुद्ध, अपितु उन सभी कुत्सित प्रयासों के विरुद्ध भी निदेशित है जो जाति उत्पीड़न के खिलाफ़ लड़ने के नाम पर, दमित जातियों के मज़दूरों और मेहनतकशों को, दूसरी जातियों के उनके वर्गीय भाईयों से अलग करते हैं और जातिगत पहचान को आधार बनाकर, अमीर-गरीब, सर्वहारा-बूर्जुआ के बीच, सामंजस्य बिठाते हैं।

२२. नकली वाम का यह दावा कि मार्क्सवाद और मज़दूर वर्ग के विरोधी होने के बावजूद, अंबेडकरवादी, समाजवादी न सही, एक जनवादी शक्ति तो हैं ही, कतई झूठा और निस्सार है। समाजवादियों के विरुद्ध कोई स्वतंत्र जनवादी शक्ति नहीं हो सकती। एकमात्र जनवादी शक्ति, वे शहरी और ग्रामीण मेहनतकश हैं जो मज़दूर वर्ग और इसका नेतृत्व करनेवाली मार्क्सवादी पार्टी का अनुसरण करते हैं।

२३. अपने विश्व-दृष्टिकोण के मामले में, अम्बेडकरवादी, दकियानूस और प्रतिक्रियावादी हैं। न सिर्फ सामान्यतया धर्म की, पर खास तौर पर हिंदू धर्म की तंग सीमाओं से परे, जाने में अक्षम अम्बेडकर, अपने अनुयायियों को बुद्ध धर्म के पीछे ले जा छोड़ता है। इतिहास ने हमें दिखाया है कि बुद्ध धर्म या हिंदू धर्म, दोनों ही, मज़दूर वर्ग को कुछ दे पाने में बुरी तरह असफल रहे हैं। यहां तक कि समूचे दक्षिण एशिया में जहां-जहां इन्होंने औपचारिक तौर पर राज्य-धर्म का दर्जा हासिल किया, वहां भी इन्होंने सबसे प्रतिक्रियावादी भूमिका ही अदा की है। श्रीलंका, एक बौद्ध देश और नेपाल एक हिंदू राज्य है जो मज़दूरों और मेहनतकशों के लिए सबसे निकृष्ट जीवन-स्थितियों का घर बन चुके हैं।

२४. मार्क्सवादी समझते हैं कि सामाजिक अन्याय के खिलाफ़, अम्बेडकरवाद के पिछड़े और दकियानूस मंच से, जो कि धार्मिक दृष्टिकोण पर टिका हुआ है, कोई भी वास्तविक और कारगर संघर्ष, नहीं किया जा सकता। सिर्फ वैज्ञानिक विश्वदृष्टिकोण और सर्वहारा अंतराष्ट्रीयता पर आधारित कार्यक्रम ही, सामाजिक अन्याय के खिलाफ़ जंग में, मज़दूर वर्ग और करोड़ों मेहनतकशों को संगठित कर सकता है। सिर्फ ऐसा कार्यक्रम ही, जमींदारों और पूंजीपतियों की सत्ता को बलपूर्वक उखाड़ फेंककर, जातिगत भेदभाव सहित सभी किस्म के शोषण और उत्पीड़न से मानवता को मुक्त करने के लिए सामाजिक क्रांति के आधार के रूप में काम दे सकता है।

२५. अम्बेडकर और उसके अनुयायियों ने, दक्षिण एशिया में उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष में एक शर्मनाक भूमिका अदा की है। उन्होंने खुले तौर पर ब्रिटिश पूंजीपतियों के मातहत औपनिवेशिक सत्ता को, क्रांतिकारी और जनवादी बताकर उसका शुरू से अंत तक समर्थन किया और उपनिवेशवाद विरोधी क्रान्तिकारी संघर्ष का विरोध किया। 47 के बाद उन्होंने नेहरू की अगुआई वाले भारतीय पूंजीवादी शासन की तरफ़ रुख किया और तब तक उसकी सेवा की, जब तक कि वे इसके लिए व्यर्थ नहीं हो गये और उनको बाहर नहीं फेंक दिया गया।

२६. अम्बेडकरी, अवसरवादी हैं, क्योंकि उनका धनाढ्यों और शासक वर्गों के ताकतवर हिस्सों, पूंजीपतियों और जमींदारों के साथ सांठगांठ का एक लम्बा सफर और गरीबों और दलितों हितों और आंदोलनों के साथ छल और गद्दारी का एक लम्बा इतिहास है।

२७. अम्बेडकरवादी, दलित जातियों के ऊपरी, संपन्न, संस्तरों के साथ बंधे हुए हैं और इन जातियों में मौजूद मज़दूरों और मेहनतकशों के दुश्मन हैं और किसी भी तरह से उनके वास्तविक हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। वह मज़दूरों और मेहनतकश जनता को मूर्ख बनाने के लिए, अस्मिता के आधार पर उनको प्रभावित करने के लिए, लफ्फाजी का इस्तेमाल करते हैं और आखिरकार उनको पूंजीपतियों और जमींदारों, अमीरों और कुलीनों की सत्ता के पीछे बांध देते हैं।

२८. समाजवाद के लिए संयुक्त संघर्ष में मज़दूर वर्ग को जातिगत और सांप्रदायिक विभाजक रेखाओं से परे एकजुट करने और बड़ी बुर्जुआजी द्वारा अनुप्रेरित, बाज़ारमुखी, नवउदारवादी एजेंडे के विरुद्ध संघर्ष की जगह, अम्बेडकरवादी मज़दूरों को जाति रेखांओं पर विभाजित होने के लिए प्रवचन देता है, और पूंजीवाद द्वारा उत्पन्न, घृणित जीवन स्थितियों, कष्टों, विपत्तियों, के "न्यायसंगत" जाति विभाजन के लिए उनके बीच वैमनस्य को उकसाता है।

२९. इस तरह, अम्बेडकरवाद के विरूद्ध संघर्ष, मज़दूरों, गरीबों, दलितों और मेहनतकशों के शिविर के भीतर समाजवाद के लिए हमारे व्यापक संघर्ष का महत्वपूर्ण हिस्सा है। पूंजीवादी तबकों से मजबूती से चिपके इन अम्बेडकरवादियों के साथ कोई भी राजनीतिक गठजोड़ नहीं बनाया जा सकता।

परिशिष्ट 
अम्बेडकर के विचार-क्षेत्र के विकास को और अधिक ध्यान से और व्यवस्थित रूप से समझने के लिये, अंबेडकर की एक संक्षिप्त जीवनी, यहां परिशिष्ट के तौर पर, प्रासंगिक है:

अम्बेडकर का जन्म १८९१ में हुआ और वह ईस्ट इंडिया कंपनी के अंतर्गत बिर्टिश आर्मी में कार्यरत एक सूबेदार की चौदहवीं संतान था, जिसे तत्कालीन महाराष्ट्र के बड़ौदा क्षेत्र के सवर्ण सामंत, गायकवाड़ों द्वारा, परवरिश व प्रोत्साहन मिला। अंबेडकर जिंदगी भर उनके रहम और सहारे पर निर्भर रहा। उसने बड़ौदा रियासत के सैन्य सचिव के तौर पर काम किया, पर उसकी अक्षमता की वजह से जल्दी ही निकाल दिया गया। ब्राह्मणवाद से उसे इस कदर लगाव था कि उसने अपने ब्राह्मण अध्यापक महादेव अंबेडकर से ‘अंबेडकर’ उपनाम लिया। अपनी पत्नी की मौत के तुरंत बाद, डायबटीज और न्यूरोलाजिकल समस्याओं से ग्रस्त होने के बावजूद, अंबेडकर ने, ब्राह्मण शारदा कबीर से दूसरी शादी की और शादी के तुरंत बाद उसका नाम बदल कर सविता अंबेडकर कर दिया। एक असफल अर्थशास्त्री (निवेश सलाहकार) और एक असफल वकील, अंबेडकर ने, बड़ौदा के गायकवाड़ शासकों की कृपापात्र छात्र-वृति से अमेरिका में कोलंबिया यूनिवर्सिटी और इंग्लैंड में लंदन स्कूल आफ इकोनॉमिक्स से अकादमिक डिग्री हासिल कीं। शहीद उधम सिंह जो अम्बेडकर की ही तरह, दलित समुदाय से थे, पंजाब में 21 साल पुराने जलियांवाला बाग के नरसंहार का बदला लेने के मकसद से, जनरल ओ’ डायर को गोली मारने से पहले, दो बार अंबेडकर से मिले। इंग्लैंड में आजीवन ब्रिटिश सत्ता, उदारवादी पूंजीवाद और बुर्जुआ जनवाद के उपासक रहे अम्बेडकर ने, उधम सिंह को उसकी क्रांतिकारी गतिविधियों से विरत होने और निजी कैरियर पर ध्यान देने की सलाह दी। 1928-29 में बम्बई में सूती कपड़ा मजदूरों की हड़ताल का, अम्बेडकर ने खुला विरोध किया
। इस हड़ताल को चला रही कम्युनिस्ट पार्टी के विरोध में उसने ब्रिटिश सरकार का साथ दिया अंबेडकर, ने उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष और भारत की औपनिवेशिक जुए से मुक्ति के विचार और आन्दोलन का भी विरोध किया। ब्रिटिश सरकार ने उसे साइमन कमीशन की सहायता करने के लिये बॉम्बे प्रेसीडेंसी कमेटी में नियुक्त किया था 1935 में, अम्बेडकर को सरकारी लॉ कालेज, मुम्बई के प्रिंसिपल के तौर पर नियुक्त किया गया। उसकी सिद्ध विश्वसनीयता को देखते हुए, ब्रिटिश सरकार ने अंबेडकर को रक्षा विमर्श समिति और फिर 7 जुलाई 1942 को वायसराय की कार्यकारी परिषद में श्रम सदस्य के तौर पर नियुक्त किया, जिस पद पर वह 1942 तक आसीन रहा। अम्बेडकर द्वारा स्थापित स्वतंत्र लेबर पार्टी को शुरू में 1936 में कुछ कामयाबी मिली, पर जल्दी ही इसका भंडाफोड़ हो गया और 1937 के चुनावों में हाशिये पर धकेल दी गई। अंबेडकर 1947 के बाद कोई भी चुनाव जीतने में असफल रहा। वह पहले आम चुनाव 1952 में हार गया, फिर 1954 में उपचुनाव भी। सिर्फ कांग्रेस और मुस्लिम लीग के साथ अवसरवादी तालमेल करके ही वह राज्यसभा में एक मनोनीत सदस्य का पद हासिल कर सका। यह रेखांकित करना आवश्यक है कि बूर्ज्वा उदारवाद का दृढ़ समर्थक, अंबेडकर, मार्क्सवाद का घोषित विरोधी था। 1938 में मसूर में अपने एक भाषण में अम्बेडकर ने कहा कि "मैं कम्युनिस्टों से कोई सम्बन्ध नहीं रख सकता। मैं कम्युनिस्टों का पक्का शत्रु हूं" ब्रिटिश उपनिवेशवाद की एक विश्वसनीय कठपुतली, अंबेडकर को, 1930-32 के दौरान, लंदन में होने वाले तीनों गोलमेज सम्मेलनों में, ब्रिटिश सरकार ने एक प्रतिभागी के रूप में आमंत्रित किया। गांधी के साथ, दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेते हुए, उसने भगत सिंह और उसके साथियों की सज़ा माफ़ी के लिये दबाव बनाने से इनकार कर दिया। अंबेडकर ने खुल्लमखुल्ला और शर्मनाक तौर पर भारत के सांप्रदायिक विभाजन की योजना का समर्थन किया और उसे जायज ठहराया। सीधे मुस्लिमों को निशाना बनाते, हिन्दू-सांप्रदायिक अंबेडकर ने यह दलील दी कि मुस्लिमों के लिए अलग पाकिस्तान का निर्माण, भारत के अच्छा छुटकारा होगा, अन्यथा एकजुट भारत 'एशिया का बीमार व्यक्ति' बनकर रह जायगा1946 के अपने लेख, ‘शूद्र कौन थे’ में, अम्बेडकर ने, धुर दक्षिणपंथी राह पकड़ते हुए, नाज़ी राजनीति में हाथ आज़माने का कुत्सित प्रयास किया । इतिहास के साथ छेड़-छाड़ करते हुए, अंबेडकर ने दलील दी कि शूद्र भारतीय मूल की स्थानीय और लड़ाकू, आर्य सूर्यवंशी नस्ल हैं, जिसका पुनरुत्थान किया जाना चाहिए। इस फासीवादी प्रोजेक्ट को कोई सफलता ना मिलने पर, घोर अवसरवादी अंबेडकर ने पासा पलटते हुए, नेहरु के नवगठित मंत्रालय में सीट हासिल की। नेहरू के नेतृत्व में पूंजीपतियों और जमींदारों की केबिनिट में अंबेडकर 1947 में कानून मंत्री और फिर संविधान की प्रारूप कमेटी का चेयरमेन नियुक्त किया गया। भारतीय बुर्जुआ वर्ग ने करोड़ो दलितों-दमितों को अपनी नयी सत्ता के साथ बांधने के लिये अंबेडकर का इस्तेमाल किया। मंत्रिमंडल के दक्षिणपंथ में रहते हुए अंबेडकर ने कश्मीर समस्या पर हिंदू-अंधराष्ट्रवादियों को समर्थन दिया। बाद में, खुद के लिये मिमियाते हुए श्रम मंत्रालय की मांग की मगर हठी नेहरू के साथ भिड़ते हुए मज़बूरी वश उसे इस्तीफा देना पड़ा। दिमाग से दुर्बल और दिल से कायर, अंबेडकर पहले सिक्ख धर्म की तरफ़ मुड़ा, और फिर अपने जीवन के अंतिम पलों में बौद्ध धर्म की तरफ़ मुड़ा मगर स्वयं को हिंदू धर्म या धर्म से मुक्त करने का कभी साहस नहीं कर सका। गरीबों और दमितों के लिये उसके संघर्ष की नानी की कहानियां इस तथ्य से झूठी साबित हो जाती हैं कि न तो 47 से पहले और न ही बाद में वह कभी भी आरोपित हुआ या जेल गया। कुछ किताबें जो उसने लिखीं, वे अपने क्षेत्र में कोई भी मुकाम नहीं बना सकीं। 1990 में, आजीवन पूंजी के सेवक रहे अंबेडकर को, भारत में सबसे उंचा नागरिक सम्मान, मरणोपरांत भारत रत्न, बुर्जुआ वर्ग की कांग्रेस सरकार द्वारा दिया गया।

अंग्रेज़ी में मूल लेख के लिए देखें: http://workersocialist.blogspot.in/2015/04/why-marxists-oppose-ambedkar-and.html

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