Wednesday 19 July 2017

दिशासंधान का मंदबुद्धि संपादक और सतत क्रान्ति का ट्रॉट्स्की का सिद्धांत

- राजेश त्यागी

अपने बेटे अभिनव को नेता बनाने को लालायित शशि प्रकाश ने उसके नाम से अपनी पारिवारिक पत्रिका 'दिशासंधान' में “त्रात्स्कीपन्‍थ से लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों का संघर्ष” नामक जो लेख लिखा है उस पर हमने क्रमशः टिप्पणियों की एक श्रृंखला प्रकाशित की है, जिसकी पांच क़िस्त नीचे प्रस्तुत है:
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क़िस्त-१ 

सर्कस के शो में शेरों के चले जाने के बाद, जोकर मंच पर आते हैं शेरों की नक़ल करने और अगले शो तक उछल-कूद करते दर्शकों का मनोरंजन करने. ऐसे ही मंदबुद्धि जोकर हैं RCLI वाले, ‘दिशासंधान’ के संपादक!

ट्रॉट्स्की की आलोचना करते, दिशासन्धान के अंक 2 (जुलाई-सितम्बर 2013) में प्रकाशित लेख “त्रात्स्कीपन्‍थ से लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों का संघर्ष” में शशि प्रकाश लिखता है: “त्रात्स्की का मानना था कि रूस में क्रान्तिकारी आन्‍दोलन का चरित्र जनवादी हो, उसमें भूमि प्रश्न की प्रधानता हो,मजदूर वर्ग अभी अपने जनवादी व आर्थिक अधिकारों (न्यूनतम कार्यक्रम) के लिए ही लड़ने के लिए तैयार हो, मगर यदि नेतृत्व सामाजिक-जनवादी पार्टी के हाथ में हो, तो यह क्रान्ति समाजवादी क्रान्ति ही होगी और इस क्रान्ति के परिणामस्वरूप एक समाजवादी मजदूर सरकार अस्तित्व में आयेगी और तत्काल समाजवाद के निर्माण के कार्य को अपने हाथों में लेगी। आगे त्रात्स्की इस सिद्धान्‍त को विकसित करते हैं और कहते हैं कि आज के दौर में (यानी विश्व बाजार और इजारेदारियों के अस्तित्व में आने के साथ) पूरी दुनिया में हर जगह कोई भी क्रान्ति समाजवादी क्रान्ति ही होगी; किसी भी अन्य किस्म की क्रान्ति या तो प्रतिक्रिया में समाप्त होगी, या फिर असफलता में। चूँकि पूरी दुनिया में श्रम और पूँजी का अन्‍तरविरोध सामान्य तौर पर मुख्य अन्‍तरविरोध बन चुका है, इसलिए आज पूरी दुनिया में राजनीतिक एजेण्डा पर समाजवादी मजदूर क्रान्तियाँ हैं; किसी देश में क्रान्तिकारी आन्‍दोलन किन्हीं भी मुद्दों को लेकर हो रहा हो, वर्ग शक्तियों का सन्‍तुलन और आपसी सम्‍बन्‍ध किसी भी किस्म के हों, आर्थिक विकास का स्तर चाहे कुछ भी हो, क्रान्ति को समाजवादी ही होना होगा। साथ ही, त्रात्स्की ने यह भी दावा किया कि कोई भी कम्युनिस्ट यदि किसी क्रान्तिकारी आन्‍दोलन को बुर्जुआ जनवादी फ्रेमवर्क में देखता है, तो वह मजदूर वर्ग को बुर्जुआ वर्ग के हाथों बेच रहा है, उसका पिछलग्गू बना रहा है, और वास्तव में मजदूर वर्ग के साथ विश्वासघात कर रहा है। त्रात्स्की की ‘स्थायी क्रान्ति’ की सबसे मूल प्रस्थापना यही है.”

यह सिरे से गलत है. इसीलिए शशि प्रकाश ट्रॉट्स्की को एक बार भी उद्धृत नहीं करता. बौना शशि प्रकाश अपनी पूरी शक्ति लगाकर ट्रॉट्स्की को इसी तरह समझ पाया. आइये समझें ट्रॉट्स्की का स्थायी क्रांति का सिद्धांत क्या कहता है. स्थायी क्रांति का सिद्धांत कहता है कि साम्राज्यवाद के उदय के बाद, दुनिया का पूंजीपति वर्ग पूरी तरह प्रतिक्रियावादी हो अपनी क्रान्तिकारी ऊर्जा खो चुका है. इसलिए यूरोप में विगत सदी की बुर्जुआ-जनवादी क्रांतियों में उसने जो क्रान्तिकारी भूमिका अदा की थी, वह भूमिका अब वह पिछड़े पूंजीवादी देशों में अदा नहीं कर पाएगा. उलटे, अक्षम और प्रतिक्रांतिकारी बुर्जुआ एक ओर साम्राज्यवाद और दूसरी ओर आंतरिक प्रतिक्रियावादी शक्तियों के साथ गुंथा रहेगा और क्रांति-विरोधी भूमिका अदा करेगा. बुर्जुआजी की इस अक्षमता और प्रतिक्रांतिकारी चरित्र का परिणाम यह होगा कि जनवादी क्रांति का नेतृत्व मजदूर वर्ग के हाथ आ जायगा. मजदूर वर्ग किसानों, मेहनतकशों की मदद से पूंजीपतियों-ज़मींदारों की सत्ता का तख्ता उलट देगा और क्रांति पर उसका नेतृत्व ‘जनवादी अधिनायकत्व’ में बदल जायगा. यह ‘जनवादी अधिनायकत्व’ मजदूर-किसान सरकार की स्थापना के रूप में प्रकट होगा. क्रांति जनवादी कार्यभारों को पूरा करती हुई समाजवादी कार्यभारों को भी हाथ में लेगी. चूंकि यूरोप में विगत की बुर्जुआ-जनवादी क्रांतियों के विपरीत, क्रांति पर अधिनायकत्व अब बुर्जुआ वर्ग का नहीं, बल्कि मजदूर वर्ग का होगा, इसलिए अब विगत की क्रांतियों के विपरीत, क्रांति के दो चरणों- जनवादी और समाजवादी- के बीच कोई चीन की दीवार नहीं रह जायगी और वे दोनों एक ही सतत सर्वहारा क्रांति में सूत्रबद्ध होंगे.

हम देख सकते हैं कि किस तरह शशि प्रकाश की दो कौड़ी की समझ ने ट्रॉट्स्की के महान युगांतरकारी ‘सतत क्रांति’ के सिद्धांत का कचरा करने की कोशिश की है. ये जोकर इसी तरह कीच-क्रीड़ा करके, अपना और अपने अनुयायियों का मन बहलाते रहते हैं.

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क़िस्त २

वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी की सफलता और उसके लेखों से बौखलाया शशि प्रकाश, ट्रॉट्स्की पर कुछ भी लिख मारने की जल्दी में, गूगल पर घुटने घिसता है और कुछ कंकर-पत्थर चुनकर घर बनाने की कोशिश करता है. RCLI के मुखपत्र दिशासन्धान के अंक 2 (जुलाई-सितम्बर 2013) में प्रकाशित लेख “त्रात्स्कीपन्‍थ से लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों का संघर्ष” में शशि प्रकाश लिखता है:

"‘युद्ध और क्रान्ति’ नामक अपने लेखों की श्रृंखला में त्रात्स्की ने तर्क पेश किया कि राष्ट्र-राज्य का युग अब बीत रहा है। औद्योगिक पूँजीवाद व ‘‘मुक्त व्यापार’’ के युग ने राष्ट्र-राज्य को जन्म दिया था लेकिन एक एकीकृत विश्व बाजार के पैदा होने के साथ ही राष्ट्र-राज्यों के बीच का फर्क अपने मायने खोता जा रहा है और राष्ट्रों की परस्पर निर्भरता को जन्म दे रहा है। त्रात्स्की के इस सिद्धान्‍त पर हम काऊत्स्की के साम्राज्यवाद के सिद्धान्‍त की छाया देख सकते हैं, हालाँकि काऊत्स्की का सिद्धान्‍त औपचारिक तौर पर 1914 में आया था।"

इतिहास से अँधा शशि प्रकाश नहीं जानता कि ‘युद्ध और क्रांति’ लेख श्रृंखला, ट्रॉट्स्की की नहीं जर्मन सामाजिक-जनवादी पारवस की है. इस बुनियादी तथ्य तक से अनभिज्ञ शशि प्रकाश, ट्रॉट्स्की की चीर-फाड़ करने बैठता है और बिना किसी उद्धरण या साक्ष्य के, ट्रॉट्स्की के सिद्धांत को झूठमूठ ही काउत्स्की के साथ जोड़ देता है. इससे स्पष्ट हो जाता है कि शशि को न तो काउत्स्की और न ट्रॉट्स्की के सिद्धांत का ककहरा स्पष्ट है.

वास्तव में, काउत्स्की का ‘अति-साम्राज्यवाद’ का सिद्धांत, ट्रॉट्स्की की साम्राज्यवाद पर समझ के ठीक विपरीत है, दोनों बिलकुल उलटे ध्रुव हैं. जहां ट्रॉट्स्की और लेनिन दोनों पूरी तरह एकमत हैं कि साम्राज्यवाद के भीतर राष्ट्रीय-राज्यों का द्वंद्व निकट भविष्य में और निरंतर, एक ओर तो युद्ध और हिंसा के रूप में और दूसरी ओर क्रांतियों के रूप में विस्फोटों को जन्म देगा, वहीँ काउत्स्की साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच समझौता और लम्बे समय के लिए शान्ति की झूठी परिकल्पना प्रस्तुत करता है.

अंधा भी ट्रॉट्स्की और काउत्स्की के क्रमशः क्रान्तिकारी और सुधारवादी सिद्धांतों के बीच इस ठीक उलटे सम्बन्ध को देखने से इनकार नहीं कर सकता. मगर शशि प्रकाश और उसकी RCLI का उद्देश्य काउत्स्की या ट्रॉट्स्की को समझना-समझाना है ही नहीं. WSP के प्रचार से अन्दर तक हिल चुके RCLI के शशि जैसे मक्कार कारिंदों का मकसद तो बस ट्रॉट्स्की पर कीचड उछालना है.

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क़िस्त-३

अपने लेख ‘ट्रोट्स्कीपंथ से लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों का संघर्ष’ में चिंता बजाता शशि प्रकाश आगे लिखता है:
“मेंशेविकों से संघर्ष में अर्थवाद और ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद से चले विचारधारात्मक संघर्ष की ही एक नये स्तर पर पुनरावृत्ति हुई। लेकिन सांगठनिक उसूल मेंशेविकों और बोल्शेविकों के बीच फूट का मूल कारण बने। मेंशेविकों से संघर्ष बाद तक जारी रहा, लेकिन संघर्ष के मूल मुद्दे शुरू में ही रेखांकित हो चुके थे।“

अर्थवाद और कानूनी मार्क्सवाद के विरुद्ध संघर्ष का, मेंशेविज्म के विरुद्ध संघर्ष से दूर का भी सम्बन्ध नहीं है. मगर शशि प्रकाश के लिए यह ‘उसकी’ पुनरावृत्ति भर है.

वह सांगठनिक उसूलों को मेन्शेविक और बोल्शेविकों के बीच फूट का कारण बताता है. १९०३ के शुरूआती संघर्ष के बाद, जब तक कि मेंशेविज्म अभी एक निश्चित राजनीतिक प्रवृत्ति के रूप में सामने तक नहीं आया था, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता.

बोल्शेविकों का मेंशेविकों के विरुद्ध संघर्ष किसी सांगठनिक उसूल को लेकर नहीं, बल्कि मेंशेविकों की उस अवधारणा के विरुद्ध था जिसमें मेन्शेविक रूस की क्रांति के बुर्जुआ अंतर्य से यह निष्कर्ष निकालते थे कि रूस की क्रांति की पहली जनवादी मंजिल में सर्वहारा और बुर्जुआ पार्टियों के बीच सांझा मोर्चा होगा. लेनिन और ट्रॉट्स्की दोनों मेंशेविकों की इस अवधारणा के विरुद्ध एकजुट थे और दोनों ऐसे किसी भी सांझे मोर्चे को ख़ारिज करते थे.

फरवरी क्रांति के समय, यह स्टालिन और दूसरे दक्षिणपंथी बोल्शेविक नेता थे जो इस मेन्शेविक अवधारणा का अनुकरण करते, अस्थायी पूंजीवादी सरकार से जा चिपके थे और बोल्शेविक-मेन्शेविक धडों के विलय का प्रस्ताव कर रहे थे.

रूसी क्रांति में इस महत्वपूर्ण द्वंद्व से आँख मूंदे, स्टालिन की ‘रूसी क्रांति का संक्षिप्त इतिहास’ को पढ़कर मार्क्सवादी ‘विद्वान’ बन जाने का भ्रम पाले शशि प्रकाश, अँधेरे में लाठी घुमाता है:
“इसके बाद जो विचारधारात्मक संघर्ष रूसी कम्युनिस्ट आन्‍दोलन और लेनिनवाद के विकास की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण स्थान रखता है, वह है त्रात्स्कीपन्‍थ से संघर्ष।

यहाँ हम फरवरी 1917 तक के दौर में त्रात्स्कीपन्‍थ से चले संघर्ष का ब्यौरा पेश करेंगे। फरवरी 1917 से लेकर लेनिन की मृत्यु तक और उसके बाद स्तालिन के साथ त्रात्स्की के संघर्ष का ब्यौरा हम आगे पेश करेंगे। फिलहाल, अक्तूबर क्रान्ति से पहले फरवरी 1917 तक त्रात्स्की और लेनिनवाद के बीच चले संघर्ष का ब्यौरा ही हमारे लिए प्रासंगिक है।“

पहली बात, अपने पूरे लेख में शशि प्रकाश क्या लेनिन के एक भी ऐसे लेख या पुस्तक का हवाला दे पाया जो लेनिन ने ट्रॉट्स्की या कथित ट्रोट्स्कीवाद के विरुद्ध लिखी हो. लेनिन और ट्रॉट्स्की के बीच वास्तविक भेदों को समझ पाने में पूरी तरह असफल शशि प्रकाश उन्ही झूठे आक्षेपों को रद्दी की टोकरी से बीन लाता है जो पहले ही सैंकड़ों बार उठाए जा चुके हैं और जिनका बहुत स्पष्ट उत्तर दिया जा चुका है.

यह कहते हुए कि उस पर बाद में बात करेंगे, ‘फरवरी से अक्टूबर’ के बीच के दौर को शातिराना तरीके से निकाल दिया गया है चूंकि क्रान्तिकारी इतिहास में यही वह उच्चतम बिंदु है जिस पर सभी धाराएं और उनके बीच द्वंद्व स्पष्ट हो जाते हैं, जहां ट्रॉट्स्की और लेनिन के बीच तमाम सैद्धांतिक मतभेद विगत की वस्तु बन जाते हैं और जहां लेनिन-और ट्रॉट्स्की के बीच पूर्ण मतैक्य स्थापित होता है. सांगठनिक प्रश्न पर लेनिन और क्रांति के अंतर्य और संयोजन के प्रश्न पर ट्रॉट्स्की सही साबित होते हैं.

फरवरी क्रांति लेनिन को संगठन के प्रश्न पर सही साबित करती है. फरवरी क्रांति में सर्वहारा की असफलता यह दिखाती है कि क्रान्तिकारी कार्यक्रम से लैस पार्टी हिरावल कितना महत्वपूर्ण और निर्णायक कारक है. ट्रॉट्स्की ने इसे स्वीकार किया है.

साथ ही फरवरी ट्रॉट्स्की की सतत क्रांति की प्रस्थापना पर मुहर लगाते हुए सिद्ध करती है:

१. साम्राज्यवाद के दौर में क्रांतियां पुराने यूरोप की तरह ‘दो चरणों’ में संपन्न नहीं होंगी बल्कि एक ही सतत क्रांति में बंधी होंगी जिनके बीच कोई अभेद्य दीवार नहीं होगी.

२. क्रांति पर ‘दो वर्गों’ का सांझा नहीं, बल्कि मजदूर वर्ग का एकल वर्ग अधिनायकत्व स्थापित होगा. दो वर्गों, मजदूर-किसानों की सरकार इस एकल वर्ग अधिनायकत्व की ही राजनीतिक अभिव्यक्ति होगी.

साथ ही फरवरी क्रांति ने मेंशेविकों के विरुद्ध लेनिन और ट्रॉट्स्की के इस सांझे सूत्र को कि नई क्रांतियों में बुर्जुआ वर्ग की कोई क्रान्तिकारी भूमिका नहीं होगी, सही साबित कर दिया.

मगर अपठ शशि प्रकाश इस सबकी लुगदी बना देता है और रूसी क्रांति की यांत्रिकी को समझने के बजाय, उल-जलूल फिकरेबाजी करते, ट्रॉट्स्की को लेनिन के खिलाफ खड़ा करने में जुट जाता है. वह इस बात को साफ़ छिपा जाता है कि रूसी क्रांति के सबसे महत्वपूर्ण बिंदु- रूसी क्रांति में बूर्ज्वा वर्ग की भूमिका पर दोनों नेता मेंशेविकों के विरुद्ध पूरी तरह एकमत थे, जबकि स्टालिन फरवरी क्रांति में मेंशेविकों की लकीर पीट रहा था. वह फरवरी क्रांति को जनवादी क्रांति बताते हुए अस्थायी पूंजीवादी सरकार का समर्थन कर रहा था.

फरवरी क्रांति ने पुराने बोल्शेविक फोर्मुलों- ‘दो चरण की क्रांति’ और ‘दो वर्गों का सांझा अधिनायकत्व’ को गलत सिद्ध कर दिया था, जिसकी स्पष्ट स्वीकृति लेनिन की ‘अप्रैल थीसिस’ है.
मगर शशि प्रकाश इस सबको निगल जाता है.

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क़िस्त-४

अपने लेख ‘ट्रोट्स्कीपंथ से लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों का संघर्ष’ में चिमटा बजाता शशि प्रकाश आगे लिखता है:
“मेंशेविकों से संघर्ष में अर्थवाद और ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद से चले विचारधारात्मक संघर्ष की ही एक नये स्तर पर पुनरावृत्ति हुई। लेकिन सांगठनिक उसूल मेंशेविकों और बोल्शेविकों के बीच फूट का मूल कारण बने। मेंशेविकों से संघर्ष बाद तक जारी रहा, लेकिन संघर्ष के मूल मुद्दे शुरू में ही रेखांकित हो चुके थे।“

अर्थवाद और कानूनी मार्क्सवाद के विरुद्ध संघर्ष का, मेंशेविज्म के विरुद्ध संघर्ष से दूर का भी सम्बन्ध नहीं है. मगर शशि प्रकाश के लिए यह ‘उसकी’ पुनरावृत्ति भर है.

वह सांगठनिक उसूलों को मेन्शेविक और बोल्शेविकों के बीच फूट का कारण बताता है. १९०३ के शुरूआती संघर्ष के बाद, जब तक कि मेंशेविज्म अभी एक निश्चित राजनीतिक प्रवृत्ति के रूप में सामने तक नहीं आया था, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता.

बोल्शेविकों का मेंशेविकों के विरुद्ध संघर्ष किसी सांगठनिक उसूल को लेकर नहीं, बल्कि मेंशेविकों की उस अवधारणा के विरुद्ध था जिसमें मेन्शेविक रूस की क्रांति के बुर्जुआ अंतर्य से यह निष्कर्ष निकालते थे कि रूस की क्रांति की पहली जनवादी मंजिल में सर्वहारा और बुर्जुआ पार्टियों के बीच सांझा मोर्चा होगा. लेनिन और ट्रॉट्स्की दोनों मेंशेविकों की इस अवधारणा के विरुद्ध एकजुट थे और दोनों ऐसे किसी भी सांझे मोर्चे को ख़ारिज करते थे.

फरवरी क्रांति के समय, यह स्टालिन और दूसरे दक्षिणपंथी बोल्शेविक नेता थे जो इस मेन्शेविक अवधारणा का अनुकरण करते, अस्थायी पूंजीवादी सरकार से जा चिपके थे और बोल्शेविक-मेन्शेविक धडों के विलय का प्रस्ताव कर रहे थे.

रूसी क्रांति में इस महत्वपूर्ण द्वंद्व से आँख मूंदे, स्टालिन की ‘रूसी क्रांति का संक्षिप्त इतिहास’ को पढ़कर मार्क्सवादी ‘विद्वान’ बन जाने का भ्रम पाले शशि प्रकाश, अँधेरे में लाठी घुमाता है.

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क़िस्त-५

अपने लेख ‘ट्रोट्स्कीपंथ से लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों का संघर्ष’ में शशि प्रकाश का कीर्तन जारी रहता है:
‘‘वामपन्‍थी’’ कम्युनिस्टों के समान त्रात्स्की यह मानने को तैयार थे कि क्रान्ति और सर्वहारा अधिनायकत्व के लिए एक हिरावल पार्टी की आवश्यकता है.....”

लेखक के अज्ञान के विपरीत, ट्रॉट्स्की फरवरी तक ऐसी हिरावल पार्टी की आवश्यकता से इनकार करते थे, और यह ट्रॉट्स्की की एकमात्र गलती थी, जिसे फरवरी क्रांति ने स्पष्ट किया और ट्रॉट्स्की ने इसे स्वीकार किया.
मगर शीर्षासन कर रहा शशि प्रकाश इस मुद्दे पर भी उल्टा ही देख रहा है. उसे गूगल से यही समझ आया है.

यह जोकर आगे लिखता है:
“लेकिन ‘वामपन्‍थी’ कम्युनिस्टों के इस बचकानेपन को भी त्रात्स्की साझा करते हैं कि क्रान्ति के ‘अधिकतम कार्यक्रम’ के अतिरिक्त कोई ‘न्यूनतम कार्यक्रम’ नहीं होता! उनके अनुसार, पूँजीवाद के मौजूदा युग में सुधार की माँगें पूर्णतः अप्रासंगिक हो चुकी हैं, क्योंकि पूँजीवाद अपनी ‘मृत्यु-पीड़ा’ से गुजर रहा है और वह किसी भी प्रकार की सुधार की क्षमता खो चुका है!”

बिलकुल गलत. ट्रॉट्स्की ने ऐसा बिलकुल नहीं कहा कि ‘अधिकतम कार्यक्रम के अतिरिक्त कोई न्यूनतम कार्यक्रम नहीं होता. बल्कि ट्रॉट्स्की ने न्यूनतम को अधिकतम से जोड़ते हुए ‘संक्रमण-कालीन मांगें’ प्रस्तुत कीं. ट्रॉट्स्की ने यह कहा कि अधिकतम (समाजवादी) और न्यूनतम (जनवादी) कार्यक्रम का पुराना विभेद, क्रांति के दोनों चरणों के एक सतत क्रांति में ऐक्यबद्ध होने के साथ, ख़त्म हो गया है और दोनों एक ही संक्रमंकालीन कार्यक्रम में गुंथ गए हैं.

मगर बेचारे मतान्ध शशि को ट्रॉट्स्की ऐसे ही समझ आया! अब इस जोकर को क्या कहें?
आगे वह अपनी अल्पबुद्धि का प्रयोग करते, राय जाहिर करता है:
“जाहिर है, ऐसी कोई भी सोच व्यवहार में लागू नहीं हो सकती है।“

व्यवहार में लागू नहीं हो सकती? यानि कि सिद्धांत में सही है पर व्यवहार में लागू नहीं हो सकती! कितनी हास्यास्पद और बचकानी बात है?

वास्तव में, ट्रॉट्स्की की प्रस्थापना यह है कि साम्राज्यवाद की स्थितियों में मामूली सुधारों के लिए संघर्षों में भी क्रांति की ओर मुड़ने की कूवत होती है. इस प्रस्थापना से इंकार कर पाने में असमर्थ यह बौना जोकर सिद्धांत को दरकिनार कर सीधे व्यवहार पर छलांग लगाता है और सुनने वालों को ठहाका लगाकर अपने ऊपर हंसने के लिए बाध्य कर देता है.

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