Tuesday 16 May 2017

सिर्फ और सिर्फ मार्क्सवाद के पास है भारत में जाति-प्रश्न की कुंजी

- राजेश त्यागी/ ५.४.२०१६

अनुवाद: सौरव भट्टाचार्य

अंबेडकरवादी दावा करता है: 'मार्क्सवादियों के पास जाति प्रश्न का कोई समाधान नही है'।हताश, निराश स्टालिनवादी समर्पण करते हुए प्रत्य्त्तर देता है: 'तब मार्क्स और अंबेडकर को साथ आना चाहिए'।

स्टालिनवादी और अंबेडकरवादी दोनों ही मुद्दे से भटक जाते हैं और जाति प्रश्न को समझने तक में असमर्थ रहते हैं, समाधान तो दूर की बात है।

भारत में जाति प्रश्न का उदय भारत के सामाजिक विकास की जटिलताओं से होता है। सामाजिक श्रम को चार वर्णों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- में विभाजन के जरिए सामाजिक व्यवस्था का निर्माण हुआ। चार वर्णों की इस जटिल और अवरुद्ध व्यवस्था के भीतर ही जातियों की ऊँच-नीच का क्रम अतीत में धीरे-धीरे विकसित होता गया। इस व्यवस्था के कारण सामाजिक श्रम का सारा बोझ शूद्रों के ऊपर आ गया जो सामाजिक सीढ़ी के सबसे निचले पायदान पर थे। वर्ण अनिवार्य रूप से जन्म के आधार पर निर्धारित होता था और जिसे बदल पाने की कोई गुंजाइश नहीं थी।

भारत में पूंजीवाद उपनिवेशवाद के रूप में आया। वैसे उपनिवेशवाद खुद ही इस बात का प्रमाण था कि पूँजीवाद का पश्चिम में, अपने जन्म स्थान में, दम घुट रहा था और वो मरणशील था। भारत में पूँजीवाद, उत्पादन शक्तियों को मध्ययुगीन बेड़ियों से मुक्ति दिलाने नही आया था बल्कि उनको अपने अधीन करने आया था। साम्राज्यवादियों को भारत की प्राचीन सामाजिक व्यवस्था को विखंडित करने की कोई इच्छा नही थी बल्कि उसमें घुसपैठ करते हुए उस पर नए सामाजिक संबंध रोपने और थोपने की इच्छा थी।

प्राचीन सामाजिक व्यवस्था, जो कि जाति व्यवस्था के जाल में बुनी हुई थी, को इस नई व्यवस्था से कोई चुनौती नही मिली, बल्कि पुराने और नए के बीच में पारस्परिक सहअस्तित्व की सहमति बन गयी।

भारत में पूँजीवाद के आगमन के बाद जाति आधारित सामाजिक ताने-बाने को एक नया जीवन मिल गया। यह कहने की जरूरत नही कि पूँजीवाद ने पश्चिम में मध्ययुगीनता को खत्म करने में जो प्रगतिशील भूमिका निभायी थी, वो भूमिका भारत में नदारद थी।

भारतीय बुर्जुआजी, जिसने अपने साम्राज्यवादी मालिकों के जूते में बस अपने पैर रख लिए थे, १९४७ में सत्ता हस्तांतरण के समय पूरी तरह प्राणहीन और कमजोर थी। उसने पुराने अवशेषों को खत्म करने की कोई कोशिश नही की बल्कि उनको और शह दी।

इस तरह, न तो विदेशी और न ही देशी पूँजीपतियों के पास इतनी सामर्थ्य थी कि वो प्राचीन सड़ी-गली जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था को खत्म करने के लिए कोई जनांदोलन चला पाते। इस जाति व्यवस्था और प्राचीन अवशेषों सहित ही भारत को अंतरराष्ट्रीय बाजार के चक्रव्यूह में घसीट लिया गया।

इस तरह, जाति प्रश्न एक अनसुलझा कार्य रह गया, एक ऐसा कार्य जोकि हमारी जनतांत्रिक क्रांति का, मुख्यत: कृषक क्रांति का, मुख्य आधार है।

चूंकि स्टालिन के नेतृत्व वाले कोमिन्टर्न के नेताओं और पार्टियों ने अपने वाहियात सिद्धांत 'दो चरणों वाली क्रांति' यानि 'आज जनतंत्र, कल समाजवाद' को शेष दुनिया की तरह ही भारत पर भी लागू किया, जिसके कारण वे मुद्दे से भटक गए और भारत में जाति और पूंजीवाद के बीच के संबंध और विशिष्टताओं को समझने में नाकाम रहे।

स्टालिनवादी सपने देखते रहे कि भारत में पूंजीवाद के विकास के साथ-साथ जनतंत्र मजबूत होगा और मध्ययुगीनता का पतन होगा। स्टालिनवादियों ने खुद को और अपने अनुयायियों को, धोखा देते हुए ये धारणा बनायी कि पूंजीपति वर्ग या उसके कम से कम कुछ हिस्से पश्चिम की तरह ही भारत में भी मध्ययुगीनता को खत्म करने में क्रांतिकारी और प्रगतिशील भूमिका निभाएंगे।

इस तरह, स्टालिनवादियों ने तथाकथित 'सामंतवाद' के खिलाफ श्रमिकों और काल्पनिक प्रगतिशील बुर्जुआजी के बीच एक सांझे मोर्चे की वकालत की। स्टालिनवादियों ने तर्क दिया कि चूंकि समाज और उसकी चेतना जातिवाद में कैद है इसीलिए जनतंत्र के विकास और जनवादी क्रांति को संपन्न करके सर्वप्रथम 'सामंतवाद' से समाज को मुक्ति दिलाने की जरूरत है।

स्टालिनवादियों ने ये देखने से इनकार कर दिया कि आज के युग में बुर्जुआजी और उसके जनतंत्र की भूमिका, मध्य्युगीनता की ही तरह, पूरी तरह से प्रतिक्रियावादी हो चुकी है और जनवादी क्रांति का कार्य समपन्न करने में वह असमर्थ है।

स्टालिनवादियों की इस ऐतिहासिक भूल की गूंज अंबेडकर और उनके खोखले विचारों में भी सुनाई पड़ती है। स्टालिनवादियों की तरह ही अंबेडकर का भी मानना था कि बुर्जुआ जनतंत्र की स्थापना से मध्ययुगीनता और उसकी सामाजिक अभिव्यक्ति, जाति, का खात्मा हो जाएगा।

चूंकि बाहर की दुनिया स्टालिनवादियों की उस व्यर्थ की समझ और भ्रम से बिल्कुल उल्टी थी जिसे वे 'मार्क्सवाद' कहकर प्रचारित कर रहे थे, इसी कारण वे इस भ्रांतिपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचे कि 'मार्क्सवाद के पास जाति प्रश्न का कोई समाधान नही है'।

भ्रमित स्टालिनवादी अंबेडकर के इस दावे पर मोहित हो गए कि बुर्जुआ जनतंत्र मध्ययुगीन व्यवस्था को जाति सहित खत्म कर देगा। स्टालिनवादियों ने मार्क्स और अंबेडकर का मिलन इस आशा के साथ कराना चाहा कि मार्क्स वर्ग प्रश्न का समाधान करेंगे और अंबेडकर जाति प्रश्न का। इस तरह स्टालिनवादियों ने अंबेडकर को उन करोड़ों दलित श्रमिकों के वैध प्रतिनिधि के रूप में मान्यता दे दी। स्टालिनवादियों ने इस तरह बिना किसी मुकाबले के ही करोड़ों श्रमिकों का नेतृत्व अंबेडकरवादियों के हाथों सौंप दिया, उन अंबेडकरवादियों के हाथों जोकि पूंजीवाद के विश्वास पात्र सेवक हैं और मार्क्सवाद के दुश्मन। और खुद स्टालिनवादी अंबेडकरवादियों के प्यादे बन गए।

इस तरह, स्टालिनवादी और अंबेडकरवादी दोनों का ये मानना है कि पूंजीवाद और बुर्जुआ जनतंत्र के विकास और सुदृढ़ीकरण से ही अतीत के कचरे को साफ़ किया जा सकता है।

दोनों ही इस कदर अंधे हो गए कि वे यह देख नही पाए कि विश्व भर में बुर्जुआजी अपने विपरीत ध्रुव पर, क्रान्तिविरोधी ध्रुव पर, जा चुकी थी और प्रतिक्रांतिकारी शक्ति बन चुकी थी, जिसमें जनवादी कार्य पूर्ण करने की क्षमता नहीं रह गई थी। पूंजीवाद के विकास और बुर्जुआ जनतंत्र के रूप में उसकी राजनीतिक शक्ति की स्थापना किसी भी तरह से जाति व्यवस्था को उखाड़ फेंकने वाली नहीं थी बल्कि उसे और सुदृढ़ ही करने वाली थी।

सबसे बड़ा छद्म-जाल यह था कि जहां पूँजीवाद ने प्राक-पूंजीवादी समाज और उसके सामाजिक संबंधों को अपने भीतर समाहित कर लिया था और वे आपस में गुंथ गए थे, वहीं स्टालिनवादी और अंबेडकरवादी पूंजीवादी शासन के तहत बुर्जुआजी और उसके नेताओं व पार्टियों के साथ मिलकर 'सामंतवाद' और 'जाति व्यवस्था' से लड़ना चाहते हैं। इस तरह, ये दोनों ही श्रमिकों और मेहनतकशों को उस पूँजीवादी शासन के पीछे बांध देते हैं जो कि खुद जाति आधारित समाज की सुरक्षा करता है और जिसके खिलाफ सर्वहारा को निर्णायक लड़ाई के लिए उठ खड़ा होना चाहिए।

स्टालिनवादी और अंबेडकरवादी दोनों ही ऐतिहासिक रतौंधी के शिकार हैं और वे विगत के पश्चिमी बुर्जुआ जनतंत्र के उन पुराने प्रयोगों में फंसे हुए हैं जिनमें बुर्जुआजी ने पुरानी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने में क्रांतिकारी भूमिका निभाई थी। वे यह मानने को तैयार नही हैं कि ऐतिहासिक विकास-क्रम ने पुरानी सामाजिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का कार्य काफी पहले ही एक नए वर्ग, सर्वहारा वर्ग को सौंप दिया है।

लेनिन के साथ अक्टूबर क्रांति के सह-नेता, ट्रॉट्स्की ने यह दिखाया कि कैसे हमारे समय में दुनिया भर में अवशिष्ट जनवादी कार्य बुर्जुआजी नही, बल्कि क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग अपने अधिनायकत्व में पूरे करेगा ट्रॉट्स्की ने यह भी दिखाया कि कैसे क्रांति के दोनों चरण अब सर्वहारा के अधिनायकत्व के चलते एक ही अटूट और सतत क्रांति के भीतर समा चुके हैं।

इस तरह, जातिगत अत्याचार के खिलाफ लड़ाई तभी लड़ी जा सकती है जब सर्वहारा और मेहनतकश वर्ग, पूंजीपतियों और जमींदारों के खिलाफ निर्णायक संग्राम छेड़ दें।

ग्रामीण क्षेत्रों में जातिगत ऊंच-नीच की आधारशिला को नष्ट करने के लिए भूमि संबंधों को पूरी तरह उलट देना होगा और ये सिर्फ भूमि पर निजी स्वामित्व को समाप्त कर ही संभव होगा। दुनिया का कोई भी बुर्जुआ जनतंत्र ये कार्य नही कर सकता है। अक्टूबर क्रांति ने साबित किया कि सिर्फ सर्वहारा अधिनायकत्व के तहत ही यह हो सकता है।

पुराने समाज और जाति व्यवस्था जिस पर वह टिका है, को नष्ट करने के लिए सर्वहारा की तानाशाही अनिवार्य शर्त है। यह तानाशाही, जाति के खात्मे और किसी समाजवादी क्रांति के उदघाटन के लिए, पहली शर्त है ।

स्टालिनवादी और अंबेडकरवादी दोनों ही इस तथ्य से इनकार करते हैं। दोनों ही ऐसे किसी सर्वहारा अधिनायकत्व की ज़रूरत से इनकार करते हैं जो उस समाजवादी क्रांति को शुरू करने की पहली शर्त है, जो छुआछूत, सामाजिक अन्याय और जातिगत भेदभाव को खत्म करेगी। दोनों ही पुरानी सामाजिक व्यवस्था को बुर्जुआ जनतंत्र के शासन के चलते खत्म करने के दिवास्वप्न देखते हैं। दोनों में से कोई भी भूमि के निजी स्वामित्व को खत्म करने के कार्यभार को प्राथमिकता और महत्व नहीं देता जो गली-सड़ी, युग-पिछड़ी सामाजिक व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए अनिवार्य शर्त है।

भारत में सात दशकों से सत्तासीन बुर्जुआ-जनतंत्र, जाति प्रश्न का हल निकालने में पूरी तरह नाकाम साबित हुई है जोकि इस बात का प्रमाण है कि वह जाति आधारित सामाजिक अन्याय और अत्याचार को खत्म करने में यौगिक रूप से ही असमर्थ है।

जाति प्रश्न का समाधान, जैसा कि अंबेडकरवादी और स्टालिनवादी दावा करते हैं, बुर्जुआ जनतंत्र के विकास और सुरक्षा में नहीं, वरन करोड़ों करोड़ श्रमजीवियों की सहायता से, बुर्जुआ-जनतंत्र पर मजदूर वर्ग की राजनीतिक विजय में निहित है।

सर्वहारा के अग्रणी तत्त्वों को, क्रांतिकारी मार्क्सवाद के कार्यक्रम पर सहमत किए बिना यह विजय संभव नही है। अत: कार्यभार यह नहीं है कि मार्क्स और अंबेडकर का मिलन करवाया जाए बल्कि यह है कि श्रमिक वर्ग के नेतृत्व के लिए अंबेडकर के खिलाफ निर्णायक जंग छेड़ी जाए, और सर्वहारा के अग्रणी तत्त्वों के बीच क्रान्तिकारी मार्क्सवाद के कार्यक्रम पर, जो कालातीत जाति आधारित सामाजिक दमन को खत्म करने के लिए एकमात्र संभव कार्यक्रम है, सहमति हासिल की जाय।                                                                             

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